09-01-93  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

अव्यक्त वर्ष मनाना अर्थात् सपूत बन सबूत देना

ब्रह्मा बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाले बच्चों प्रति अव्यक्त बापदादा बोले -

आज अव्यक्त बाप अपने अव्यक्तमूर्त बच्चों से मिलन मना रहे हैं। अव्यक्त अर्थात् व्यक्त भाव से न्यारे और अव्यक्त बाप समान प्यारे। सभी बच्चे विशेष इस वर्ष ऐसे बाप समान बनने का लक्ष्य रखते हुए यथा शक्ति बहुत अच्छा पुरूषार्थ कर रहे हैं। लक्ष्य के साथ लक्षण भी धारण करते चल रहे हैं। बापदादा सभी बच्चों का पुरूषार्थ देख हर्षित होते हैं। हर एक समझते हैं कि यही समान बनना स्नेह का सबूत है। इसलिए ऐसे सबूत देने वाले बच्चों को ही सपूत बच्चे कहा जाता है। तो सपूत बच्चों को देख बापदादा खुश भी होते हैं और विशेष एकस्ट्रा मदद भी देते हैं।

जितना हिम्मतवान बनते हैं उतना पद्मगुणा बाप की मदद के स्वत: ही पात्र बन जाते हैं। ऐसे पात्र बच्चों की निशानी क्या होती है? जैसे बाप के लिए गायन है कि बाप के भण्डारे सदा भरपूर हैं, ऐसे सपूत बच्चों के सदा सर्व के दिल के स्नेह की दुआओं से, सर्व के सहयोग की अनुभूतियों से, सर्व खज़ानों से भण्डारे भरपूर रहते हैं। किसी भी खज़ाने से अपने को खाली नहीं अनुभव करेंगे। सदा उन्हों के दिल से यह गीत स्वत: बजता है-अप्राप्त नहीं कोई वस्तु बाप के हम बच्चों के भण्डारे में। उनकी दृष्टि से, वृत्ति से, वायब्रेशन्स से, मुख से, सम्पर्क से सदा भरपूर आत्माओं का अनुभव होता है। ऐसे बच्चे सदा बाप के साथ भी हैं और साथी भी हैं। यह डबल अनुभव हो। स्व की लगन में सदा साथ का अनुभव करते और सेवा में सदा साथी स्थिति का अनुभव करते। यह दोनों अनुभव ‘साथी’ और ‘साथ’ का स्वत: ही बाप समान साक्षी अर्थात् न्यारा और प्यारा बना देता है। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा कि बाप और आप कम्बाइन्ड-रूप में सदा अनुभव किया और कराया। कम्बाइन्ड स्वरूप को कोई अलग कर नहीं सकता। ऐसे सपूत बच्चे सदा अपने को कम्बाइन्ड-रूप अनुभव करते हैं। कोई ताकत नहीं जो अलग कर सके।

जैसे सतयुग में देवताओं की प्रकृति दासी रहती है अर्थात् सदा समय प्रमाण सहयोगी रहती है, ऐसे सपूत बच्चों की श्रेष्ठ स्थिति कारण सर्व शक्तियाँ और सर्व गुण समय प्रमाण सदा सहयोगी रहते हैं अर्थात् सर्व शक्तियों के, गुणों के राज्य-अधिकारी रहते हैं। साथ-साथ ऐसे सपूत बच्चों का सेवा का विशेष स्वरूप क्या रहता? जैसे सभी वाणी द्वारा वा मन्सा-सेवा द्वारा सेवा करते रहते हैं, ऐसे सेवा वे भी करते हैं लेकिन उन्हों की विशेष सेवा यही है कि सदा अन्य आत्माओं को प्राप्त हुए बाप के गुणों और शक्तियों का दान नहीं लेकिन सहयोग वा प्राप्ति का अनुभव कराना। अज्ञानियों को दान देंगे और ब्राह्मण आत्माओं को सहयोग वा प्राप्ति करायेंगे। क्योंकि सबसे बड़े ते बड़ा दान गुण दान वा शक्तियों का दान है। निर्बल को शक्तिवान बनाना-यही श्रेष्ठ दान है वा सहयोग है। तो ऐसा सहयोग देना आता है? कि अभी लेने के लिए सोचते हो? अभी तक लेने वाले हो या दाता के बच्चे देने वाले बने हो? वा कभी लेते हो, कभी देते हो-ऐसे? देने लग जाओ तो लेना स्वत: ही सम्पन्न हो जायेगा। क्योंकि बाप ने सभी को सबकुछ दे दिया है। कुछ अपने पास रखा नहीं है, सब दे दिया है। सिर्फ लेने वालों को सम्भालना और कार्य में लगाना नहीं आता है। तो जितना देते जायेंगे उतना ही सम्पन्नता का अनुभव करते जायेंगे। ऐसे सपूत हो ना! ‘सपूत’ की लाइन में हो कि सपूत बनने की लाइन में हो? जैसे लौकिक में भी माँ-बाप बच्चों को अपने हाथों पर नचाते रहते हैं अर्थात् सदा खुश रखते, उमंग-उत्साह में रखते। ऐसे सपूत बच्चे सदा सर्व को उमंग-उत्साह में नचाते रहेंगे, उड़ती कला में उड़ाते रहेंगे। तो यह वर्ष अव्यक्त वर्ष मना रहे हो। अव्यक्त वर्ष अर्थात् बाप के सपूत बन सबूत देने वाला बनना। ऐसा सबूत देना अर्थात् मनाना। अव्यक्त का अर्थ ही है व्यक्त भाव और व्यक्त भावना से परे।

जीवन में उड़ती कला वा गिरती कला का आधार दो बातें ही हैं-(1) भावना और (2) भाव। अगर किसी भी कार्य में कार्य प्रति या कार्य करने वाले व्यक्ति के प्रति भावना श्रेष्ठ है, तो भावना का फल भी श्रेष्ठ स्वत: ही प्राप्त होता है। एक-है सर्व प्रति कल्याण की भावना; दूसरी है-कोई कैसा भी हो लेकिन सदा स्नेह और सहयोग देने की भावना; तीसरी है-सदा हिम्मत-उल्लास बढ़ाने की भावना; चौथी है-कोई कैसा भी हो लेकिन सदा अपनेपन की भावना और पाँचवी है-इन सबका फाउन्डेशन आत्मिक-स्वरूप की भावना। इनको कहा जाता है सद्भावनायें वा पॉजिटिव भावनायें। तो अव्यक्त बनना अर्थात् ये सर्व सद्भावनायें रखना। अगर इन सदभावनाओं के विपरीत हैं तब ही व्यक्त भाव अपनी तरफ आकर्षित करता है। व्यक्त भाव का अर्थ ही है इन पांचों बातों के नैगेटिव अर्थात् विपरीत स्थिति में रहना। इसके विपरीत को तो स्वयं ही जानते हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। जब भावना विपरीत होती है तो अव्यक्त स्थिति में स्थित नहीं हो सकते।

माया के आने के विशेष यही दरवाजे हैं। किसी भी विघ्न को चेक करो-उसका मूल प्रीत के बजाए विपरीत भावनायें ही होती हैं। भावना पहले संकल्प रूप में होती है, फिर बोल में आती है और उसके बाद फिर कर्म में आती है। जैसी भावना होगी वैसे व्यक्तियों के हर एक चलन वा बोल को उसी भाव से देखेंगे, सुनेंगे वा सम्बन्ध में आयेंगे। भावना से भाव भी बदलता है। अगर किसी आत्मा के प्रति किसी भी समय ईर्ष्या की भावना है अर्थात् अपनेपन की भावना नहीं है तो उस व्यक्ति के हर चलन, हर बोल से मिस-अन्डरस्टैण्ड (Misunderstand-गलतफहमी) का भाव अनुभव होगा। वह अच्छा भी करेगा लेकिन आपकी भावना अच्छी न होने के कारण हर चलन और बोल से आपको बुरा भाव दिखाई देगा। तो भावना भाव को बदलने वाली है। तो चेक करो कि हर आत्मा के प्रति शुभ भावना, शुभ भाव रहता है? भाव को समझने में अन्तर पड़ने से ‘मिस-अन्डरस्टैण्डिंग’  माया का दरवाजा बन जाती है। अव्यक्त स्थिति बनाने के लिए विशेष अपनी भावना और भाव को चेक करो तो सहज अव्यक्त स्थिति में विशेष अनुभव करते रहेंगे।

कई बच्चे अशुद्ध भावना वा अशुभ भाव से अलग भी रहते हैं। लेकिन एक है-शुभ भाव और भावना; दूसरी है-व्यर्थ भाव और भावना, तीसरी है साधारण भावना वा भाव। क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् सेवा-भाव। तो साधारण भावना वा साधारण भाव नुकसान नहीं करता लेकिन जो ब्राह्मण जीवन का कर्तव्य है शुभ भावना से सेवा-भाव, वह नहीं कर सकते हैं। इसलिए ब्राह्मण जीवन में जो सेवा का फल जमा होने का विशेष वरदान है उसका अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो साधारण भावना और भाव को भी श्रेष्ठ भावना, श्रेष्ठ भाव में परिवर्तन करो। चेक करेंगे तो चेंज करेंगे और अव्यक्त फरिश्ता बाप समान सहज बन जायेंगे। तो समझा, अव्यक्त वर्ष कैसे मनाना है?

‘शुभ भावना’ मन्सा-सेवा का बहुत श्रेष्ठ साधन है और ‘श्रेष्ठ भाव’ सम्बन्ध-सम्पर्क में सर्व के प्यारे बनने का सहज साधन है। जो सदा हर एक प्रति श्रेष्ठ भाव धारण करता वही माला का समीप मणका बन सकता है। क्योंकि माला सम्बन्ध-सम्पर्क में समीप और श्रेष्ठता की निशानी है। कोई किसी भी भाव से बोले वा चले लेकिन आप सदा हर एक प्रति शुभ भाव, श्रेष्ठ भाव धारण करो। जो इसमें विजयी होते हैं वही माला में पिरोने के अधिकारी हैं। चाहे सेवा के क्षेत्र में भाषण नहीं कर सकते, प्लैन नहीं बना सकते लेकिन जो हर एक से सम्बन्ध-सम्पर्क में शुभ भाव रख सकते हैं, तो यह ‘शुभ भाव’ सूक्ष्म सेवा-भाव में जमा हो जायेगा। ऐसे शुभ भाव वाला सदा सभी को सुख देगा, सुख लेगा। तो यह भी सेवा है और यह सेवा-भाव आगे नम्बर लेने का अधिकारी बना देगा। इसलिए माला का मणका बन जायेंगे। समझा? कभी भी ऐसे नहीं सोचना कि हमको तो भाषण करने का चांस ही नहीं मिलता है, बड़ी-बड़ी सेवा का चांस नहीं मिलता। लेकिन यह सेवा-भाव का गोल्डन चांस लेने वाला चान्सलर की लाइन में आ जायेगा अर्थात् विशेष आत्मा बन जायेगा। इसलिए इस वर्ष में विशेष यह ‘शुभ भावना’ और ‘श्रेष्ठ भाव’ धारण करने का विशेष अटेन्शन रखना।

अशुभ भाव और अशुभ भावना को भी अपने शुभ भाव और शुभ भावना से परिवर्तन कर सकते हो। सुनाया था ना कि गुलाब का पुष्प बदबू की खाद से खुशबू धारण कर खुशबूदार गुलाब बन सकता है। तो आप श्रेष्ठ आत्मायें अशुभ, व्यर्थ, साधारण भावना और भाव को श्रेष्ठता में नहीं बदल सकते! वा कहेंगे-क्या करें, इसकी है ही अशुभ भावना, इनका भाव ही मेरे प्रति बहुत खराब है, मैं क्या करूँ? ऐसे तो नहीं बोलेंगे ना! आपका तो टाइटल ही है विश्व-परिवर्तक। जब प्रकृति को तमोगुणी से सतोगुणी बना सकते हो; तो क्या आत्माओं के भाव और भावना के परिवर्तक नहीं बन सकते? तो यही लक्ष्य बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के लक्षण सहज और स्वत: लायेगा। समझा, कैसे अव्यक्त वर्ष मनाना है? मनाना अर्थात् बनना-यह ब्राह्मणों की भाषा का सिद्धान्त है। बनना है ना। कि सिर्फ मनाना है? तो ब्राह्मणों में वर्तमान समय इसी पुरूषार्थ की विशेष आवश्यकता है और यही सेवा माला के मणकों को समीप लाए माला प्रसिद्ध करेगी। माला के मणके अलग-अलग तैयार हो रहे हैं। लेकिन माला अर्थात् दाने, दाने की समीपता। तो यह दो बातें दाने की दाने से समीपता का साधन हैं। इसको ही कहा जाता है सपूत अर्थात् सबूत देने वाले। अच्छा!

चारों ओर के सर्व स्नेह का सबूत देने वाले सपूत बच्चों को, सदा बाप समान फरिश्ता बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्रति श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ भाव रखने वाली विजयी आत्माओं को, सदा हर आत्मा को श्रेष्ठ भावना से परिवर्तन करने वाले विश्व-परिवर्तक आत्माओं को, सदा विजयी बन विजय माला में समीप आने वाले विजयी रत्नों को बापदादा का अव्यक्त वर्ष की मुबारक के साथ-साथ याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

(जानकी दादी से) अपनी हिम्मत और सर्व के सहयोग की दुआयें शरीर को चला रही हैं। समय पर शरीर भी सहयोग दे देता है। इसको कहते हैं एकस्ट्रा दुआओं की मदद। तो विशेष आत्माओं को यह एकस्ट्रा मदद मिलती ही है। थोड़ा शरीर को रेस्ट भी देना पड़ता है। अगर नहीं देते हैं तो वो खिटखिट करता है। जैसे औरों को जो चाहता है वो दे देते हो ना! किसको शान्ति चाहिए, किसको सुख चाहिए, किसको हिम्मत चाहिए-तो देते हो ना! तो शरीर को जो चाहिए वो भी दे दिया करो। इसको भी तो कुछ चाहिए ना! क्योंकि यह शरीर भी अमानत है ना! इसको भी सम्भालना तो पड़ता है ना! अच्छी हिम्मत से चला रही हो और चलना ही है। समय पर आवश्यकतानुसार जैसे शरीर आपको सहयोग दे देता है, तो आप भी थोड़ा-थोड़ा सहयोग दे दो। नॉलेजफुल तो हो ही। अच्छा है। क्योंकि इस शरीर द्वारा ही अनेक आत्माओं का कल्याण होना है। आप लोगों के सिर्फ साथ के अनुभव से ही सब बहुत बड़ी मदद का अनुभव करते हैं। हाजिर होना भी सेवा की हाजिरी हो जाती है। चाहे स्थूल सेवा न भी करें लेकिन हाजिर होने से हाजिरी पड़ जाती है। सेकेण्ड भी सेवा के बिना न रह सकते हो, न रहते हो। इसलिए सेवा का जमा का खाता जमा हो ही रहा है।

बहुत अच्छा पार्ट बजा रही हो, बजाती रहेंगी। अच्छा पार्ट मिला है ना! इतना बढ़िया पार्ट ड्रामा अनुसार दुआओं के कारण मिला है! ये ब्राह्मण जन्म के आदि के संस्कार ‘रहमदिल’ और ‘सहयोग की भावना’ का फल है। चाहे तन से, चाहे मन से-रहमदिल और सहयोग की भावना का पार्ट आदि से मिला हुआ है। इसलिए उसका फल सहज प्राप्त हो रहा है। शारीरिक सहयोग की भी सेवा दिल से की है। इसलिए शरीर की आयु इन दुआओं से बढ़ रही है। अच्छा!

(दादी जी से) अच्छा, सर्विस करके आई हो! यह ड्रामा भी सहयोगी बनता है और ये शुभ भावना का फल और बल मिलता है। संगठित रूप में शुभ भावना ये फल देती है। तो अच्छा रहा और अच्छे ते अच्छा रहना ही है। अभी तो और भी अव्यक्त स्थिति द्वारा विश्व की आत्माओं को और सेवा में आगे बढ़ने का बल मिलेगा। सिर्फ ब्राह्मणों के दृढ़ परिवर्तन के लिए विश्व-परिवर्तन रूका हुआ है। ब्राह्मणों का परिवर्तन कभी पॉवरफुल होता है, कभी हल्का होता है। तो ये हलचल भी कभी जोर पकड़ती है, कभी ढीली होती है। सम्पन्न बनने तो यही ब्राह्मण हैं। अच्छा!

(चन्द्रमणि दादी से) बेहद की चक्रवर्ती बन गई-आज यहाँ, कल वहाँ! तो इसको ही कहा जाता है विश्व की आत्माओं से स्वत: और सहज सम्बन्ध बढ़ना। विश्व का राज्य करना है, विश्व-कल्याणकारी हैं, तो कोने-कोने में पांव तो रखने चाहिए ना। इसलिए देश-विदेश में चांस मिल जाता है। प्रोग्राम न भी बनाओ लेकिन यह ड्रामानुसार संगम की सेवा भविष्य को प्रत्यक्ष कर रही है। इसलिए बेहद की सेवा और बेहद के सम्बन्ध-सम्पर्क बढ़ रहे हैं और बढ़ते रहेंगे। स्टेट का राजा तो नहीं बनना है, विश्व का बनना है! पंजाब का राजा तो नहीं बनना है! वो तो निमित्त डयुटी है, डयुटी समझकर निभाते हो। बाकी ऑर्डर करें कि मधुबन निवासी बनना है, तो सोचेंगे क्या कि पंजाब का क्या होगा? नहीं। जब तक जहाँ की जो डयुटी है, बहुत अच्छी तरह से निभाना ही है।

(जानकी दादी से) अभी कहें कि आप फॉरेन से यहाँ आ जाओ तो बैठ जायेंगी ना! बाप भेजते हैं, खुद नहीं जाती हो। आखिर तो सभी को यहाँ आना ही पड़ेगा ना! इसलिए बार-बार आते-आते फिर रह जायेंगे। चक्कर लगाकर आ जाते हो ना! इसलिए न्यारे भी हो और सेवा के प्यारे भी। देश और व्यक्तियों के प्यारे नहीं, सेवा के प्यारे। अच्छा! सबको याद देना, अव्यक्त वर्ष की मुबारक देना।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

बचने के लिये बुद्धि को शुद्ध संकल्पों में बिजी रखो

सदा खुश रहते हो! या कभी खुश रहते और कभी खुशी के बजाए कोई व्यर्थ संग वा संकल्प में आ जाते हो? अगर कोई भी व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ संग मिलता है वा चलता है तो खुशी समाप्त हो जाती है। क्योंकि व्यर्थ संग वा व्यर्थ संकल्प बोझ है और खुशी हल्की चीज़ है! इसलिए देखो, जब खुश होते हैं तो नाचते हैं। जो हल्का होगा वह खुशी में नाचता है! शरीर कितना भी भारी हो लेकिन मन हल्का होगा तो भी नाचेगा। मन भारी होगा तो हल्का भी नाचेगा नहीं। तो खुशी है हल्कापन और व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ संग है भारी,बोझ। बोझ सदा नीचे ले आता है और हल्की चीज़ सदा ऊंची जाती है। तो खुश रहने का सहज साधन है-सदा हल्के रहो। शुद्ध संकल्प हल्के हैं और व्यर्थ संकल्प भारी हैं। जब भी किसके व्यर्थ संकल्प चलते हैं तो क्या अनुभव करते हो? माथा भारी हो जाता है। बोझ है तभी तो माथा भारी करता है ना! तो सदा बाप के संग में रहना और सदा बाप के दिये हुए शुद्ध संकल्पों में रहना! यह रोज़ की मुरली रोज के लिए शुद्ध संकल्प हैं। तो कितने शुद्ध संकल्प बाप द्वारा मिले हैं! जब कोई अच्छी चीज़ वा बढ़िया चीज़ मिल जाती है तो हल्की (घटिया) चीज़ को क्या करेंगे? खत्म करेंगे ना!

सारा दिन बुद्धि को बिजी रखने के लिए रोज़ सवेरे-सवेरे बाप शुद्ध संकल्प देते हैं। जहाँ शुद्ध होंगे वहाँ व्यर्थ नहीं होंगे। बुद्धि को खाली रखते हो, इसलिए व्यर्थ आते हैं। यही सहज उपाय है, साधन है कि सदा शुद्ध संकल्पों से बुद्धि को बिजी रखो। सिर्फ ‘खुश’ रहना है-यही याद नहीं रखना लेकिन ‘सदा खुश’ रहना है! यह सोचो कि ब्राह्मण खुश नहीं रहेंगे तो कौन रहेगा! ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं ना। देवताओं से भी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों की खुराक ही खुशी है। इसलिये गाते हैं-खुशी जैसी कोई खुराक नहीं। अगर कोई सदा खुश रहता है तो पूछते हैं-आपको क्या मिला है! आप लौकिक जीवन से अलौकिक जीवन वाले हो गये। तो यह अलौकिकता की झलक चेहरे पर दिखाई देनी चाहिए। ऐसे नहीं-मैं अन्दर से तो खुश रहती हूँ, बाहर से दिखाई नहीं देता। अन्दर का बाहर अवश्य आता है। तो सदा चेक करो कि हमारा चेहरा और चलन अलौकिकता की झलक दिखाता है? अच्छा!

ग्रुप नं. 2

अचल-अडोल बनने के लिये रोज़ तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ

अपने को त्रिकालदर्शी अनुभव करते हो? संगमयुग पर बाप सभी आत्माओं को त्रिकालदर्शी बनाते हैं। क्योंकि संगमयुग है श्रेष्ठ, ऊंचा। तो जो ऊंचा स्थान होता है वहाँ खड़ा होने से सब कुछ दिखाई देता है। तो संगमयुग पर खड़े होने से तीनों ही काल दिखाई देते हैं। एक तरफ दु:खधाम का ज्ञान है, दूसरे तरफ सुखधाम का ज्ञान है और वर्तमान काल संगमयुग का भी ज्ञान है। तो त्रिकालदर्शी बन गये ना! तीनों ही काल का ज्ञान इमर्ज है? तीनों ही काल स्मृति में रखो-कल दु:खधाम में थे, आज संगमयुग में हैं और कल सुखधाम में जायेंगे। जो भी कर्म करो वह त्रिकालदर्शी बनकर के करो तो हर कर्म श्रेष्ठ होगा। व्यर्थ नहीं होगा, समर्थ होगा! समर्थ कर्म का फल समर्थ मिलता है। त्रिकालदर्शी बनने से-यह क्यों हुआ, यह क्या हुआ, ‘ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए’.......-यह सब क्वेश्चन-मार्क खत्म हो जाते हैं। नहीं तो बहुत क्वेश्चन उठते हैं। ‘क्यों’ का क्वेश्चन उठने से व्यर्थ संकल्पों की क्यू लग जाती है और त्रिकालदर्शी बनने से फुलस्टॉप लग जाता है। नथिंग न्यु, तो फुल स्टॉप लग गया ना! फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दी लगाने से बिन्दु रूप सहज याद आ जाता है।

बापदादा सदा कहते हैं कि अमृतवेले सदा तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। आप भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी और जो हो गया, जो हो रहा है, नथिंग न्यु, तो फुलस्टॉप भी बिन्दी। यह तीन बिन्दी का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक। मस्तक स्मृति का स्थान है, इसलिए तिलक मस्तक पर ही लगाते हैं। तीन बिन्दियों का तिलक लगाना अर्थात् स्मृति में रखना। फिर सारा दिन अचल-अडोल रहेंगे। यह ‘क्यूं’ और ‘क्या’ ही हलचल है। तो अचल रहने का साधन है-अमृतवेले तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। यह भूलो नहीं। जिस समय कोई बात होती है उस समय फुलस्टॉप लगाओ। ऐसे नहीं कि याद था लेकिन उस समय भूल गया। गाड़ी में यदि समय पर ब्रेक न लगे तो फायदा होगा या नुकसान? तो समय पर फुलस्टॉप लगाओ। नथिंग न्यु-होना था, हो रहा है। और साक्षी होकर के देखकर आगे बढ़ते चलो। तो त्रिकालदर्शी अर्थात् आदि, मध्य, अन्त-तीनों को जान जैसा समय, वैसा अपने को सदा सेफ रख सको। ऐसे नहीं कहो कि-यह समस्या बहुत बड़ी थी ना, छोटी होती तो मैं पास हो जाती लेकिन समस्या बहुत बड़ी थी! कितनी भी बड़ी समस्या हो लेकिन आप तो मास्टर सर्वशक्तिवान हो ना! तो बड़े हुए ना! बड़े के आगे समस्या नहीं है लेकिन खेल है! इसको कहा जाता है त्रिकालदर्शी। त्रिकालदर्शी आत्मा सदा ही निश्चिंत रहती है क्योंकि उसे निश्चय है कि हमारी विजय हुई ही पड़ी है।

जब अपने को जिम्मेवार समझते हो तब चिंता होती है और बाप को जिम्मेवार समझते हो तो निश्चिंत हो जाते हो। कई बार कहते हैं ना-क्या करें, जिम्मेवारी है ना, निभाना पड़ता है। लेकिन ट्रस्टी बन निभाओ। गृहस्थी बनकर निभा नहीं सकेंगे। ट्रस्टी बनकर के निभाने से सहज भी होगा और सफल भी होंगे। तो सब चिंता छोड़कर जाना। जिनके पास थोड़ी-बहुत हो, तो छोड़कर जाना, साथ नहीं ले जाना। वैसे तीर्थ पर कुछ छोड़कर आते हैं ना। तो यह भी महान तीर्थ है ना! तो सदा के लिए निश्चिंत, निश्चयबुद्धि। समझा? किचड़ा साथ में नहीं रखा जाता है। माताओं को आदत होती है-पुरानी चीज़ भी होगी तो गांठ बांधकर रख देंगी! तो यह भी गांठ बाँधकर नहीं जाना। मातायें गठरी बांधती हैं, पाण्डव जेब में रखते हैं। तो इसे छोड़कर निश्चिंत अर्थात् सदा अचल-अडोल स्थिति में रहना। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सफलतामूर्त बनने का साधन है-जीवनमुक्त स्थिति

ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा जीवन-मुक्त स्थिति वाले, सर्व बंधनों से मुक्त। पहला बंधन है अपने देहभान का बंधन। ब्राह्मण जीवन में देह का बंधन, संबंध का बंधन, साधनों का बंधन-सब खत्म हो गया ना! मोटा धागा खत्म हो गया। महीन धागा रह तो नहीं गया? अभी सम्बन्ध है लेकिन बंधन नहीं। बंधन अपने वश में करता है और संबंध स्नेह का सहयोग देता है। लेकिन शुद्ध संबंध। देह के सम्बन्धियों का देह के नाते से सम्बन्ध नहीं लेकिन आत्मिक संबंध। तो बंधन में हो या सम्बन्ध में? अगर वश होते हो, परवश हो जाते हो तो बंधन है और मुक्त रहते हो तो संबंध है! कैसे रहते हो? थोड़ा-थोड़ा आकर्षित होते हो? ब्राह्मण अर्थात् जीवन-मुक्त। तो चेक करो-कोई भी कर्म मुक्त होकर के करते हैं? क्योंकि कर्म के बिना तो रह नहीं सकते हैं, जब कर्मेन्द्रियों का आधार है तो कर्म तो करना ही है, लेकिन कर्म-बन्धन नहीं, कर्म-सम्बन्ध। जीवन-मुक्त अवस्था अर्थात् सफलता भी ज्यादा और कर्म का बोझ भी नहीं। जो मुक्त हैं वो सदा ही सफलतामूर्त हैं। जीवन-मुक्त आत्मा सदा फलक से कहेगी कि सफलता जन्मसिद्ध अधिकार है। जो बंधन में होगा वो सदा सोचता रहेगा कि सफलता होगी या नहीं, यह करें या नहीं करें, ठीक होगा या नहीं होगा? लेकिन ब्राह्मण आत्माओं की सफलता निश्चित है, विजय निश्चित है। ऐसे नहीं समझना कि भविष्य में जीवन-मुक्त होंगे! अभी जीवन-मुक्त होना है। इस समय ही जीवनबंध और जीवन-मुक्त का ज्ञान है! सतयुग में यह ज्ञान नहीं होगा! मजा है तो इस समय का है! जीवनबंध का भी अनुभव किया और जीवन-मुक्त का भी अनुभव कर रहे हो! सदा जीवन-मुक्त रहने का सहज साधन है-’मैं’ और ‘मेरा बाबा’! क्योंकि मेरे-मेरे का ही बंधन है। मेरा बाबा हो गया तो सब मेरा खत्म। जब ‘एक मेरा’ में ‘सब मेरा-मेरा’ समाप्त हो गया, तो बंधन-मुक्त हो गये। तो यह सहज साधन आता है ना! कर्म के पहले चेक करो कि बंधन में फँस के तो कर्म नहीं कर रहे हैं? दुनिया वाले तो बहुत कठिन तप करते हैं मुक्ति प्राप्त करने को। और आपको सहज मिला ना! ‘मेरा बाबा’ कहा और बंधन खत्म। तो जो सहज होता है, उसको सदा अपनाया जाता है। जो मुश्किल होता है उसे सदा नहीं कर सकते हैं। तो सदा सहज है या कभी-कभी थोड़ा मुश्किल लगता है? तो यही याद रखना कि हम ब्राह्मण जीवन-मुक्त आत्मा हैं। सहजयोगी अर्थात् सफलतामूर्त। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

स्वमान में रहो तो सर्व हद की इच्छायें समा जायेंगी

स्वयं को श्रेष्ठ स्वमानधारी आत्मा अनुभव करते हो? जितना स्वमान में स्थित होते हो, तो स्वमान, देहभान को भुला देता है। आधा कल्प देहभान में रहे और देह-भान के कारण अल्पकाल के मान प्राप्त करने के भिखार रहे। अभी बाप ने आकर स्वमानधारी बना दिया। स्वमान में स्थित रहते हो या कभी हद के मान की इच्छा रखते हो? जो स्वमान में रहता उसे हद के मान प्राप्त करने की कभी इच्छा नहीं होती, इच्छा मात्रम् अविद्या हो जाते। एक स्वमान में सर्व हद की इच्छायें समा जाती हैं, मांगने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि यह हद की इच्छायें कभी भी पूर्ण नहीं होती हैं। एक हद की इच्छा अनेक इच्छाओं को उत्पन्न करती है, सम्पन्न नहीं करती लेकिन पैदा करती है। स्वमान सर्व इच्छाओं को सहज ही सम्पन्न कर देता है। तो जब बाप सदा के लिए स्वमान देता है, तो कभी-कभी क्यों लेवें! स्वमानधारी सदा बेफिक्र बादशाह होता है, सर्व प्राप्ति स्वरूप होता है। उसे अप्राप्ति की अविद्या होती है। तो सदा स्वमानधारी आत्मा हूँ-यह याद रखो। स्वमानधारी सदा बाप के दिलतख्तनशीन होता है क्योंकि बेफिक्र बादशाह है! बादशाह का जीवन कितना श्रेष्ठ है! दुनिया वालों के जीवन में कितनी फिक्र रहती हैं-उठेंगे तो भी फिक्र, सोयेंगे तो भी फिक्र। और आप सदा बेफिक्र हो।

पाण्डवों को फिक्र रहता है? कल व्यापार ठीक होगा या नहीं, कल देश में शान्ति होगी या अशान्ति........-यह फिक्र रहता है?कल बच्चे अच्छी तरह से सम्भाल सकेंगे या नहीं-यह फिक्र माताओं को रहता है? दुनिया में कुछ भी हो लेविन अशान्ति के वायुमण्डल में आप तो शान्तस्वरूप आत्मायें हो, औरों को भी शान्ति देने वाले। या अशान्ति होगी तो आप भी घबरा जायेंगे? आपके घर के बाहर बहुत हंगामा हो रहा हो, तो आप उस समय क्या करते हो? याद में बैठ जाते हो ना! बाप को याद करके शान्ति लेकर औरों को देना-यह सेवा करो। क्योंकि जो अच्छी चीज अपने पास है और दूसरों को उसकी आवश्यकता है, तो देनी चाहिए ना! तो अशान्ति के समय पर मास्टर शान्ति-दाता बन औरों को भी शान्ति दो, घबराओ नहीं। क्योंकि जानते हो कि-जो हो रहा है वो भी अच्छा और जो होना है वह और अच्छा! विकारों के वशीभूत मनुष्य तो लड़ते ही रहेंगे। उनका काम ही यह है। लेकिन आपका काम है-ऐसी आत्माओं को शान्ति देना। क्योंकि विश्व कल्याणकारी हो ना! विश्व-कल्याणकारी आत्मायें सदा मास्टर दाता बन देती रहती हैं। तो सभी शक्ति-रूप हो ना! मातायें चार दीवारी में रहने वाली अबलायें हीं हो, शक्तियाँ हो। तो शक्ति सदा वरदानी होगी और पाण्डव भी सदा महावीर। महावीर की सदा विजय है। कभी हार नहीं खा सकते। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सम्पन्न बनने का सहज साधन - सदा बाप के साथ रहो

(डबल विदेशी बच्चों से) सदा अपने को इस सृष्टि-ड्रामा की बेहद स्टेज पर पार्ट बजाने वाले हीरो एक्टर समझते हो? ऊंचे ते ऊंचे बाप के साथ पार्ट बजाने वाले ऊंचे ते ऊंचे एक्टर हो गये ना। बाप के साथ पार्ट बजा रहे हो, इसलिए विशेष पार्टधारी बन गये। हीरो एक्टर के ऊपर सभी की नज़र होती है। तो सारे विश्व के आत्माओं की नजर अभी आप सबके तरफ है! तो एक नशा यह है कि हम बाप के साथ पार्ट बजाने वाले हैं और दूसरा नशा है कि सारे विश्व की नजर हम श्रेष्ठ आत्माओं के ऊपर है! तो डबल नशा है। डबल खुशी है-एक श्रेष्ठ आत्मा बनने की खुशी, दूसरी बाप से मिलने की! डबल हीरो हो-एक हीरे तुल्य जीवन बनाई है और दूसरा विशेष पार्टधारी हो! ऐसा कभी सोचा था कि इतना विशेष पार्ट बजाने वाली आत्मा हूँ? सोचा नहीं था लेकिन सेकेण्ड में बन गये। सेकेण्ड का सौदा है ना! सहज प्राप्त किया या मेहनत लगी? फॉरेन कल्चर से ब्राह्मण कल्चर बदलने में मेहनत नहीं लगी? कितनी बार ब्राह्मण कल्चर में रहे हो? अनेक बार के संस्कार याद आते हैं? या इमर्ज करने में मेहनत लगती है? यह समटाइम (Sometime; कभी-कभी) कब तक रहेगा? अगर अभी विनाश हो जाए तो एवररेडी हुए? अच्छा!

भारत वाले तैयार हो? कल विनाश हो जाए-इतने सम्पन्न बने हो? एवररेडी बनना ही सेफ्टी का साधन है। अगर समय मिलता है तो संगमयुग की मौज मनाओ लेकिन रहो एवररेडी। क्योंकि फाइनल विनाश की डेट कभी भी पहले मालूम नहीं पड़ेगी, अचानक होना है। एवररेडी नहीं होंगे तो धोखा हो जायेगा। इसलिए एवररेडी बनो। सदा ये याद रखो कि हम और बाप सदा साथ हैं। तो जैसे बाप सम्पन्न है वैसे साथ रहने वाले भी सम्पन्न हो जायेंगे। जब साथ का अनुभव करेंगे तो निरन्तर योगी सहज बन जायेंगे। सदा साथ हैं, साथ रहेंगे और स्वीट होम में साथ चलेंगे। जो कम्पैनियन होंगे वे साथ चलेंगे और बराती होंगे, देखने वाले होंगे तो पीछे-पीछे चलेंगे। समान बनने वाले ही साथ चलेंगे। तो यह प्लैन बनाओ कि समान बनना ही है और साथ चलना ही है। अच्छा! (डबल विदेशी बच्चों प्रति) सबको बापदादा की तरफ से नये वर्ष की मुबारक और याद, प्यार देना। बापदादा देख रहे हैं-सभी अपने को बाप समान बनाने के उमंग-उत्साह में उड़ रहे हैं। तो उड़ रहे हैं और सदा उड़ते रहेंगे।